"सर्प ने भी उस विष का मज़ा कहाँ चखा होगा, जो विष इंसानी अदाओं से छलकता है."
जैसे ही यह छंद पास में गहरी नींद मे सोए हुए सर्प के कानों से टकराया, तब उसे होश में आया. सुन के बेहद क्रोध में आया और झट से उठ कर बुलंद आवाज़ मे चिल्लाया कि, "भला यह किसने फ़रमाया..." "ज़हर उगलना तो मेरा काम है फिर यह इंसान बीच मे कहाँ से आया?"
काफी समय तक जवाब का इंतजार किया, लेकिन जब जवाब न मिला तो
उसने वहीँ से भगवन को फ़ोन लगाया, और मिलने अनुरोध जताया.
खुदा के पास पंहुचते ही उसने पूरी कहानी बताया. गुस्से से लाल हो कर उसने
खुदा की ओर मुह घुमाया और जोर से चिल्लाया की "तुने मुझ से छल किया है विषैला
मुझे कहलाया और ज़हरीला इंसान बनाया."
ईश्वर ने फिर साँप को समझाने का प्रयास किया, उसे बताया की मैंने संसार
बनाया, उस संसार की सबसे सुंदर कृति इंसान बनाया. फल- फूल, पेड- पौधे, जानवर, जल- आकाश, पृथ्वी .... (सर्प ने ईश्वर
की बात कटते हुए बोला की) यह सब तो अच्छा ही बनाया, लेकिन अभी तक इंसान का ज़हरीला होना समझ नहीं आया?
खुदा भी विचलित परिस्थिति में आया "मैंने तो इन्हें
प्यार का सबक सिखाया, इन्हें ज़हरीला किसने बनाया?" विषैला इन्हें इश्वर ने
नहीं बल्कि इनके लालच ने बनाया. जब खुदा ने अदन की वाटिका बनाई तो, उसने सब कुछ इंसानों के लिए
बनाया. इंसानो को दिमाग दिया ताकि वो अच्छे और बुरे मे फर्क कर सकें. इन्होने अपने मतलब के लिए
मुल्क बनाया, धर्म बनाया, परमात्माओं पर व्यापार ठहराया.
हर एक बात को सियासत से जुड़वाया और इन्ही को ढाल बनाकर आतंक फैलाया "मैंने
इन्हें ज़हरीला नहीं बनाया, इनकी स्वाभाव ने इन्हें
यहाँ तक पंहुचाया." इस दास्तान को सुन फिर सर्प
इश्वर से फ़रमाया की धन्य है आप, जो मुझे जानवर बनाया.
फिर बड़े ही सहजता से फिर फ़रमाया "भला यह धर्म, और परमात्मा क्या है और
इंसानों को इसका चस्का कहाँ से आया?" क्या मेरा भी कोई धर्म है? भगवन पर इलज़ाम लगते हुए
कहा की, भला तुने ने इंसानों और जानवरों मे इतना फर्क क्यों ठहराया? तब मुस्कुराते हुए भगवन ने
सर्प को बताया, की तू धन्य है; जो तुझे धर्म का अर्थ समझ मे
नहीं आया. नहीं तो तू भी इंसानों की
तरह जात- पात, धर्म और वर्ण व्यवस्था पर
दूसरे जानवरों को भडकता, अभी तो मैं सिर्फ इंसानों
के जुल्मों सितम से परेशान हूँ. अगर जानवर भी ऐसे होते तो न जाने इस
दुनिया का क्या होता? 